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शादी ओ अलम सब से हासिल है सुबुकदोशी | शाही शायरी
shadi o alam sab se hasil hai subukdoshi

ग़ज़ल

शादी ओ अलम सब से हासिल है सुबुकदोशी

बेदम शाह वारसी

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शादी ओ अलम सब से हासिल है सुबुकदोशी
सौ होश मिरे सदक़े तुझ पर मिरी बे-होशी

गुम होने को पा जाना कहते हैं मोहब्बत में
और याद का रक्खा है याँ नाम फ़रामोशी

कल ग़ैर के धोके में वो ईद मिले हम से
खोली भी तो दुश्मन ने तक़दीर-ए-हम-आग़ोशी

वो क़ुलक़ुल-ए-मीना में चर्चे मिरी तौबा के
और शीशा-ओ-साग़र की मय-ख़ाने में सरगोशी

हम रंज भी पाने पर मम्नून ही होते हैं
हम से तो नहीं मुमकिन एहसान-फ़रामोशी

होश आता है फिर मुझ को फिर होश मुझे आया
देना निगह-ए-साक़ी इक साग़र-ए-बे-होशी

कल अरसा-ए-महशर में जब ऐब खुलें मेरे
रहमत तिरी फैला दे दामान-ए-ख़ता-पोशी

मिलते ही नज़र तुझ से मस्ताना हुआ 'बेदम'
साक़ी तिरी आँखें हैं या साग़र-ए-बे-होशी