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शादाब शाख़-ए-दर्द की हर पोर क्यूँ नहीं | शाही शायरी
shadab shaKH-e-dard ki har por kyun nahin

ग़ज़ल

शादाब शाख़-ए-दर्द की हर पोर क्यूँ नहीं

ज़िया जालंधरी

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शादाब शाख़-ए-दर्द की हर पोर क्यूँ नहीं
हर बर्ग इक ज़बाँ है तो फिर शोर क्यूँ नहीं

वारस्ता-ए-अज़ाब-ए-तमाशा है चश्म-ए-बर्ग
ऐ आगही निगाह मिरी कोर क्यूँ नहीं

दस्त-ए-सवाल-ए-बर्ग है शबनम से क्यूँ तही
जो बादलों को लूट ले वो ज़ोर क्यूँ नहीं

ज़ीस्त एक बर्ग-ए-तिश्ना है वो अब्र क्या हुए
अब उन की कोई राह मिरी ओर क्यूँ नहीं

ये शो'ला एक बर्ग-ए-ख़िज़ाँ है कि बर्ग-ए-गुल
आँखों में तेरी शाम है क्यूँ भोर क्यूँ नहीं