शादाब-ओ-शगुफ़्ता कोई गुलशन न मिलेगा
दिल ख़ुश्क रहा तो कहीं सावन न मिलेगा
तुम प्यार की सौग़ात लिए घर से तो निकलो
रस्ते में तुम्हें कोई भी दुश्मन न मिलेगा
अब गुज़री हुई उम्र को आवाज़ न देना
अब धूल में लिपटा हुआ बचपन न मिलेगा
सोते हैं बहुत चैन से वो जिन के घरों में
मिट्टी के अलावा कोई बर्तन न मिलेगा
अब नाम नहीं काम का क़ाएल है ज़माना
अब नाम किसी शख़्स का रावन न मिलेगा
चाहो तो मिरी आँखों को आईना बना लो
देखो तुम्हें ऐसा कोई दर्पन न मिलेगा
ग़ज़ल
शादाब-ओ-शगुफ़्ता कोई गुलशन न मिलेगा
अनवर जलालपुरी