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सवाल-ए-तजरुबा-ए-कार-ए-सख़्त उठने लगा | शाही शायरी
sawal-e-tajurba-e-kar-e-saKHt uThne laga

ग़ज़ल

सवाल-ए-तजरुबा-ए-कार-ए-सख़्त उठने लगा

हादिस सलसाल

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सवाल-ए-तजरुबा-ए-कार-ए-सख़्त उठने लगा
सो फिर तमव्वुज-ए-अंदोह-बख़्त उठने लगा

ब-कज-अदाइ-ए-ख़ूबान-ए-नाज़-ए-आलम से
तयक़्क़ुन-ए-दिल-बरगशता-ए-बख़्त उठने लगा

दुकान-ओ-मजलिस-ए-ना-आश्ना-ए-जौहर से
ये अर्जुमंद ब-अस्बाब-ओ-रख़्त उठने लगा

बक़दर-ए-रम्ज़ जहाँ फहमा-ए-निगाह-ए-दिल
नशीन-ए-कूचा-ओ-सहरा-ओ-तख़्त उठने लगा

ब-इल्तिहाब-ए-तमन्ना-ए-दीद-ए-हासिल-ए-इश्क़
धुआँ सा अज़-जिगर-ए-लख़्त-लख़्त उठने लगा

ख़बर तो थी मिरे दैर-आश्ना को दुनिया से
कि 'हादिस'-ए-ग़म-ए-अग़माज़-ए-बख़्त उठने लगा