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सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया | शाही शायरी
sarzamin-e-zulf mein kya dil Thikane lag gaya

ग़ज़ल

सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया

शाह नसीर

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सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
इक मुसाफ़िर था सर-ए-मंज़िल ठिकाने लग गया

गुलशन-ए-हस्ती नहीं जा-ए-शगुफ़्तन ऐ सबा
देख जो ग़ुंचा गया याँ खिल ठिकाने लग गया

आबरू रख ली ख़ुदा ने उस की हम-चश्मों में आह
तेग़-ए-अबरू का तिरी घाएल ठिकाने लग गया

फ़ुर्सत-ए-यक-दम पे फूला था हुबाब-आब-ए-जू
था जो नक़्श-ए-सफ़हा-ए-बातिल ठिकाने लग गया

जान-ए-शीरीं दी तिरे आशिक़ ने भी जूँ कोहकन
सर से अपने मार कर इक सिल ठिकाने लग गया

रख क़दम होश्यार हो कर इश्क़ की मंज़िल में आह
जो हुआ इस राह में ग़ाफ़िल ठिकाने लग गया

छाँव में नख़्ल-ए-मिज़ा की लोटता है तिफ़्ल-ए-अश्क
ख़ाक में या रफ़्ता रफ़्ता मिल ठिकाने लग गया

आश्ना कोई न देखा ग़र्क़-ए-बहर-ए-इश्क़ का
एक दम में जो तह-ए-साहिल ठिकाने लग गया

बे-कली क्यूँकर न होवे उस की फ़ुर्क़त में 'नसीर'
इश्क़ में उस गुल-बदन के दिल ठिकाने लग गया