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सर्द न कर मज़ाक़-ए-इश्क़ बे-ख़ुदी-ए-नमाज़ में | शाही शायरी
sard na kar mazaq-e-ishq be-KHudi-e-namaz mein

ग़ज़ल

सर्द न कर मज़ाक़-ए-इश्क़ बे-ख़ुदी-ए-नमाज़ में

तालिब बाग़पती

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सर्द न कर मज़ाक़-ए-इश्क़ बे-ख़ुदी-ए-नमाज़ में
आँख को दूरबीं बना जल्वा-गह-ए-मजाज़ में

राज़-ए-निज़ाम-ए-काएनात उन की निगाह-ए-नाज़ में
अस्लिय्यत-ए-ख़ुदा निहाँ मेरी ख़ुदी की राज़ में

फिर तुझे ढूँढ लेगी ख़ुद ज़र्फ़-शनास बर्क़-ए-तूर
शौक़-ए-कलीम शर्त है इश्क़ के सोज़-ओ-साज़ में

या तो ख़ुदी को भूल जा या फिर उसी को भूल जा
हिस्स-ए-मुग़ाइरत न रख बारगह-ए-नियाज़ में

ख़िर्मन-ए-काएनात को फूँक न दे यही शरार
सोज़ ही सोज़ ही फ़क़त मेरी ख़ुदी की साज़ में

क़ुव्वत-ए-ज़ब्त वस्सलाम ताक़त-ए-सब्र अलविदा'अ
फिर वही इर्तिआ'श है उन की निगाह-ए-नाज़ में

मुझ को न आज़माईए हश्र बपा न कीजिए
शोर-ए-नुशूर है निहाँ नाला-ए-जांगुदाज़ में

तूर को ख़ाक कर गया शम्स का ख़ूँ-बहा गया
लाख छुपा न छुप सका हुस्न हरीम-ए-नाज़ में

तालिब ग़म-नसीब का हुस्न-ए-तलब तो देखिए
आरज़ू-ए-फ़िराक़ है दौर-ए-वफ़ा-ए-नाज़ में