EN اردو
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है | शाही शायरी
sarasar KHajlat-o-sharmindagi hai

ग़ज़ल

सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
हमारी भी भला क्या ज़िंदगी है

सदा कोई रहा है ने रहेगा
उसी की ज़ात को पाइंदगी है

ख़याल-ए-ख़ूब-रूयाँ क्यूँके छोटे
तबीअत में मिरी ख़्वाहिंदगी है

नज़र अपनी भी वाँ जा ही पड़े है
जहाँ आराइश ओ ज़ेबंदगी है

ग़ज़ल-ख़्वानी कर अब ऐ 'मुसहफ़ी' तर्क
हुआ क़द ख़म ये वक़्त-ए-बंदगी है