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सराब-ए-दिल से मुसलसल फ़रेब खा रहा हूँ | शाही शायरी
sarab-e-dil se musalsal fareb kha raha hun

ग़ज़ल

सराब-ए-दिल से मुसलसल फ़रेब खा रहा हूँ

नदीम सिरसीवी

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सराब-ए-दिल से मुसलसल फ़रेब खा रहा हूँ
मैं एक उम्र से अपने ख़िलाफ़ जा रहा हूँ

यक़ीन-ओ-शक की अजब कैफ़ियत से हूँ दो-चार
बिछा रहा हूँ मुसल्ला कभी उठा रहा हूँ

मिरा ग़ुरूर है ये ख़ाक-ज़ादगी मेरी
मैं फिर फ़रिश्तो तुम्हें बात ये बता रहा हूँ

तिलिस्म-ए-लफ़्ज़-ओ-मआ'नी के फेर में फँस कर
ब-शक्ल-ए-नज़्म-ओ-ग़ज़ल ख़ून-ए-दिल बहा रहा हूँ

ख़ियाम-ए-अश्क में झुलसी पड़ी है कोई मुश्क
मैं अपनी प्यास का क़िस्सा उसे सुना रहा हूँ

भुला के सारे तक़ाज़े रदीफ़-ए-मौत के मैं
फ़क़त हयात का हर क़ाफ़िया निभा रहा हूँ