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सर पे इक साएबाँ तो रहने दे | शाही शायरी
sar pe ek saeban to rahne de

ग़ज़ल

सर पे इक साएबाँ तो रहने दे

बशीर मुंज़िर

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सर पे इक साएबाँ तो रहने दे
जल गया घर धुआँ तो रहने दे

सोचता हूँ कि मैं भी ज़िंदा हूँ
मुझ को इतना गुमाँ तो रहने दे

रुख़ हवा का बदल ही जाएगा
बादबाँ पुर-फ़िशाँ तो रहने दे

गर्द इतनी उड़ा न राहों में
पाँव के कुछ निशाँ तो रहने दे

आँख से छिन गए सभी मंज़र
लब पे इक दास्ताँ तो रहने दे

मंज़िलों का पता मिले न मिले
शामिल-ए-कारवाँ तो रहने दे