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सर मिरा काट के पछ्ताइएगा | शाही शायरी
sar mera kaT ke pachhtaiyega

ग़ज़ल

सर मिरा काट के पछ्ताइएगा

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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सर मिरा काट के पछ्ताइएगा
किस की फिर झूटी क़सम खाइएगा

थाम लूँ दिल को ज़रा हाथों से
अभी पहलू से न उठ जाइएगा

कहिए यारान-ए-अदम क्या गुज़री
कुछ लब-ए-गोर से फ़रमाइएगा

यूसुफ़-ए-हुस्न अगर ग़म होगा
आप याक़ूब नज़र आइएगा

कर के इसबात-ए-दहन कीजिए वस्फ़
देखिए मुँह की अभी खाइएगा

कम भी देने में बहुत फ़ाएदा है
बोसा इक दीजिए दस पाइएगा

ख़त पे ख़त लिखिएगा ऐ शाह-सवार
घोड़ी काग़ज़ की भी दौड़ाइएगा

मर्दुम-ए-चश्म से आए जो हिजाब
आँख के पर्दे में छुप जाइएगा

क्या गरेबाँ ने गला घोंटा है
इधर ऐ दस्त-ए-जुनूँ आइएगा

कह के पाँव से चले यार के घर
हम जो उठने लगें सो जाइएगा

कह के ये तुम हो बड़े हर बाबे
दर-ब-दर क्या मुझे फिरवाइएगा

क्यूँ बनावट से अजी रोते हैं आप
झूटे मोती किसे दिखलाइएगा

जाम साक़ी से जो माँगा तो कहा
भर के अश्क आँख में पी जाइएगा

मुसहफ़-ए-रुख़ की क़सम में है मज़ा
हम से क़ुरआन ये उठवाइएगा

ख़त ग़ुलामी का नहीं ऐ यूसुफ़
ख़त जो निकला है न शरमाइएगा

हम ने यूसुफ़ जो कहा क्यूँ बिगड़े
मोल लेगा कोई बिक जाइएगा

हज़रत-ए-काबा जो बन जाइए अर्श
दिल की वुसअ'त न कभी पाइएगा

हम भी आ निकलेंगे मस्जिद में 'वज़ीर'
ख़िश्त-ए-ख़ुम ले के जो बनवाइएगा