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सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर | शाही शायरी
sar-e-taslim hai KHam izn-e-uqubat ke baghair

ग़ज़ल

सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर

सर-बरहना हूँ तो क्या ग़म है कि अब शहर में लोग
बरगुज़ीदा हुए दस्तार-ए-फ़ज़ीलत के बग़ैर

देख तन्हा मिरी आवाज़ कहाँ तक पहुँची
क्या सफ़र तय नहीं होते हैं रिफ़ाक़त के बग़ैर

इश्क़ में 'मीर' के आदाब न बरतो कि यहाँ
काम चलता नहीं ऐलान-ए-मोहब्बत के बग़ैर

रेत पर थक के गिरा हूँ तो हवा पूछती है
आप इस दश्त में क्यूँ आए थे वहशत के बग़ैर