सर-ए-शोरीदा पा-ए-दश्त-ए-पैमा शाम-ए-हिज्राँ था
कभी घर था बयाबाँ में कभी घर में बयाबाँ था
तिरे कुश्ते को महशर ख़्वाब-ए-आसाइश का सामाँ था
कि सूर अफ़्साना-गो था ज़लज़ला गहवारा-जुम्बाँ था
जिसे सब नूह के फ़रज़ंद कहते हैं कि तूफ़ाँ था
किसी जाँ-दादा-ए-ख़ामोश का अंदोह-ए-पिन्हाँ था
बला से चूर कर दो चूर कर दो शीशा-ए-दिल को
इसी में क़ैद हसरत थी इसी में बंद अरमाँ था
न खोली आँख वक़्त-ए-नज़अ' बीमार-ए-मोहब्बत ने
किसी का पर्दा रखना था कोई आँखों में पिन्हाँ था
अकेले ऐ बुतो हम भी न सोए कुंज-ए-मरक़द में
जो इस पहलू में हसरत थी तो उस पहलू में अरमाँ था
गए थे रौंदने दिल को लिए बैठे हैं तलवों को
फ़रो रग रग में नश्तर थे निहाँ नस नस में पैकाँ था
मिरी हस्ती की महशर में कोई ताबीर क्या करता
किसी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का मैं इक ख़्वाब-ए-परेशाँ था
क़यामत तक पस-अज़-मुर्दन रही इक टीस सी दिल में
वो कहते हैं कि पैकाँ था मैं कहता हूँ कि अरमाँ था
हुज़ूर-ए-बुलबुल-ए-किल्क-ए-'बयाँ' किस तरह खुलते मुँह
कि बू-ए-ग़ुंचा साँ महजूब नुत्क़-ए-हर-सुख़न वाँ था
ग़ज़ल
सर-ए-शोरीदा पा-ए-दश्त-ए-पैमा शाम-ए-हिज्राँ था
बयान मेरठी