सर-ए-काकुल को न ओ शोख़-ए-तरहदार तराश
काट खाएगा ये उड़ कर न सर-ए-मार तराश
अब तो सर होते हैं दस बीस के हर रोज़ क़लम
ख़ूब ये तू ने निकाली है जफ़ा-कार तराश
ख़त तो ये मैं ने ही लिक्खा था ख़तावार हूँ मैं
हाथ क़ासिद के लिए तू ने सितमगार तराश
माह-ए-नौ चूम ही ले उस को फ़लक से गिर कर
फेंक देवे जो वो नाख़ुन पस-ए-दीवार तराश
तेज़ी-ए-तेग़ है क्या चाल में उस काफ़िर की
सैकड़ों दिल दिए उस ने दम-ए-रफ़्तार तराश
क़त्ल करता है तो कर शौक़ से 'तनवीर' को तू
रंज-आमेज़ न बातें बुत-ए-अय्यार तराश

ग़ज़ल
सर-ए-काकुल को न ओ शोख़-ए-तरहदार तराश
तनवीर देहलवी