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सर-ए-काकुल को न ओ शोख़-ए-तरहदार तराश | शाही शायरी
sar-e-kakul ko na o shoKH-e-trahdar tarash

ग़ज़ल

सर-ए-काकुल को न ओ शोख़-ए-तरहदार तराश

तनवीर देहलवी

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सर-ए-काकुल को न ओ शोख़-ए-तरहदार तराश
काट खाएगा ये उड़ कर न सर-ए-मार तराश

अब तो सर होते हैं दस बीस के हर रोज़ क़लम
ख़ूब ये तू ने निकाली है जफ़ा-कार तराश

ख़त तो ये मैं ने ही लिक्खा था ख़तावार हूँ मैं
हाथ क़ासिद के लिए तू ने सितमगार तराश

माह-ए-नौ चूम ही ले उस को फ़लक से गिर कर
फेंक देवे जो वो नाख़ुन पस-ए-दीवार तराश

तेज़ी-ए-तेग़ है क्या चाल में उस काफ़िर की
सैकड़ों दिल दिए उस ने दम-ए-रफ़्तार तराश

क़त्ल करता है तो कर शौक़ से 'तनवीर' को तू
रंज-आमेज़ न बातें बुत-ए-अय्यार तराश