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सर-ब-सर यार की मर्ज़ी पे फ़िदा हो जाना | शाही शायरी
sar-ba-sar yar ki marzi pe fida ho jaana

ग़ज़ल

सर-ब-सर यार की मर्ज़ी पे फ़िदा हो जाना

रहमान फ़ारिस

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सर-ब-सर यार की मर्ज़ी पे फ़िदा हो जाना
क्या ग़ज़ब काम है राज़ी-ब-रज़ा हो जाना

बंद आँखो वो चले आएँ तो वा हो जाना
और यूँ फूट के रोना कि फ़ना हो जाना

इश्क़ में काम नहीं ज़ोर-ज़बरदस्ती का
जब भी तुम चाहो जुदा होना जुदा हो जाना

तेरी जानिब है ब-तदरीज तरक़्क़ी मेरी
मेरे होने की है मेराज तिरा हो जाना

तेरे आने की बशारत के सिवा कुछ भी नहीं
बाग़ में सूखे दरख़्तों का हरा हो जाना

इक निशानी है किसी शहर की बर्बादी की
नारवा बात का यक-लख़्त रवा हो जाना

तंग आ जाऊँ मोहब्बत से तो गाहे गाहे
अच्छा लगता है मुझे तेरा ख़फ़ा हो जाना

सी दिए जाएँ मिरे होंट तो ऐ जान-ए-ग़ज़ल
ऐसा करना मिरी आँखों से अदा हो जाना

बे-नियाज़ी भी वही और तअ'ल्लुक़ भी वही
तुम्हें आता है मोहब्बत में ख़ुदा हो जाना

अज़दहा बन के रग-ओ-पै को जकड़ लेता है
इतना आसान नहीं ग़म से रिहा हो जाना

अच्छे अच्छों पे बुरे दिन हैं लिहाज़ा 'फ़ारिस'
अच्छे होने से तो अच्छा है बुरा हो जाना