सनम ख़ुश तबईयाँ सीखे हो तुम किन किन ज़रीफ़ों सीं
कि ये लुत्फ़-ए-अदा मालूम होता है लतीफ़ों सीं
लिखूँ वस्फ़ उस की ज़ुल्फ़ों के क़लम कर शाख़-ए-सुम्बुल कूँ
दवातों में सियाही भर गुल-ए-शब्बू की क़ीफों सीं
तिरी सीधी निगाहें इन दिनों में गर्म-ए-उल्फ़त हैं
मुझे सैफ़ी लगी है हात कई विर्द और वज़ीफ़ों सीं
ख़याल इस का हम-आग़ोश-ए-नज़र है सात पर्दों में
अजब शोख़ी सीं पेश आया है ये शोख़ उन अफ़ीफ़ों सीं
कहाँ पाए मज़े के इस क़दर उस ने बड़े कोई
तिरी आँखों कूँ सौ दर्जे शराफ़त ही शरीफ़ों सीं
हुजूम-ए-बुल-हवस के शम्अ-ए-मज्लिस हो सो क्या मअ'नी
लतीफ़ों कूँ रवा नीं इख़्तिलात ऐसे कसीफ़ों सीं
मिज़ाजें ना-मुवाफ़िक़ हों तो कब सोहबत बरार होए
नहीं मिलती हमारी तब्अ इन दुनिया के जीफ़ों सीं
अबस मत देख आँखें फाड़ फाड़ इन चश्म-ए-ख़ूनीं कूँ
पड़ा नीं नर्गिस-ए-बाग़ी तुझे काम इन हरीफ़ों सीं
ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-रह हैं हम तिरे ऐ शो'ला-ख़ू ज़ालिम
मुनासिब नीं है इतनी सर-कशी आख़िर ज़ईफ़ों सीं
सुबुक रुहान-ए-मअ'नी बू-ए-गुल हैं बाग़-ए-इरफ़ाँ के
हर इक ख़ार-ए-गिराँ जाँ कूँ ख़बर क्या इन लतीफ़ों सीं
ग़लत नीं है कि बुलबुल हाफ़िज़-ए-सीपारा-ए-गुल है
सनद रखता हूँ मैं गुल-बर्ग के रंगीं सहीफ़ों सीं
रक़ीब उस संग-दिल सीं मुंतज़िर हैं हम-कलामी के
सुख़न करता है कब वो कोह-ए-तमकीं इन ख़फ़ीफ़ों सीं
सवार-ए-तौसन-ए-मअ'नी हूँ चौगान-ए-तबीअत सीं
लिया हूँ गू-ए-मैदान-ए-सुख़न में हम रदीफ़ों सीं
अदीब-ए-इश्क़ के शागिर्द हैं फ़रहाद और मजनूँ
कि कोह-ओ-दश्त का मकतब है गर्म इन दो ख़लीफों सीं
'सिराज' इस शम्अ कूँ है शौक़ परवाने जलाने का
दुआ कर या इलाही मोम दिल होए हम नजीफ़ों सीं
ग़ज़ल
सनम ख़ुश तबईयाँ सीखे हो तुम किन किन ज़रीफ़ों सीं
सिराज औरंगाबादी