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'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ | शाही शायरी
salim dil ko mayassar sakun zara na hua

ग़ज़ल

'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ

सलीम अहमद

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'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ
अगरचे तर्क-ए-मोहब्बत को इक ज़माना हुआ

वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी
पे उस को तर्क-ए-तअल्लुक़ को इक बहाना हुआ

उसी से दाद का तालिब हूँ रू-ब-रू जिस के
बयान-ए-दर्द-ए-मोहब्बत भी इक फ़साना हुआ

वो चोब-ए-ख़ुश्क हूँ महरूम-ए-आतिश-ए-सोज़ाँ
कि बिन जलाए जिसे क़ाफ़िला रवाना हुआ

नशात-ए-दर्द में फ़ुर्सत कहाँ कि ग़ौर करें
'सलीम' क्या हुआ उल्फ़त में और क्या न हुआ