सख़्त नाज़ुक मिज़ाज-ए-दिलबर था
ख़ैर गुज़री कि दिल भी पत्थर था
मुख़्तसर हाल-ए-ज़िंदगी ये है
लाख सौदा था और इक सर था
उन की रुख़्सत का दिन तो याद नहीं
ये समझिए कि रोज़-ए-महशर था
ख़ाक निभती मिरी तिरे दिल में
एक शीशा था एक पत्थर था
तुम मिरे घर जो आने वाले थे
खोले आग़ोश सुब्ह तक दर था
अब्र-ए-रहमत जो हो गया मशहूर
किसी मय-कश का दामन-ए-तर था
जब उन्हें शौक़ था सँवरने का
एक इक आइना सिकंदर था
आँसुओं की थी क्या बिसात मगर
देखते देखते समुंदर था
कैसी आज़ाद ज़िंदगी है 'जलील'
दर-ए-दिल पर जब अपना बिस्तर था
ग़ज़ल
सख़्त नाज़ुक मिज़ाज-ए-दिलबर था
जलील मानिकपूरी