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सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम | शाही शायरी
sairab aab-e-ju se qadah aur qadah se hum

ग़ज़ल

सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
सर-ख़ुश गुलों की बू से क़दह और क़दह से हम

मुखड़े पे है गुलाल जो उस मस्त-ए-नाज़ के
रंगीं है अक्स-ए-रू से क़दह और क़दह से हम

पीर-ए-मुग़ाँ करम है जो सैराब हो सके
तेरे नम-ए-वज़ू से क़दह और क़दह से हम

बज़्म-ए-शराब रक़्स की मज्लिस से कम नहीं
नाचे है परमलू से क़दह और क़दह से हम

हल्क़े नहीं ये ज़ुल्फ़ में साक़ी की बल्कि है
वाबस्ता मू-ब-मू से क़दह और क़दह से हम

हुर्मत लिखी शराब की याँ तक कि खिंच रहा
ज़ाहिद की गुफ़्तुगू से क़दह और क़दह से हम

शीशा जो फूट जाए तो फूटे वले न हो
या-रब जुदा सुबू से क़दह और क़दह से हम

वो तफ़रक़ा पड़ा कि बहुत दूर रह गया
दस्त-ए-पियाला-जू से क़दह और क़दह से हम

ऐ 'मुसहफ़ी' हमें तो गवारा नहीं ये नीश
नोश उस के लब से चूसे क़दह और क़दह से हम