सैर-ए-शब-ए-ला-मकाँ और मैं
एक हुए रफ़्तगाँ और मैं
साँस ख़लाओं ने ली सीना भर
फैल गया आसमाँ और मैं
सर में सुलगती हवा तिश्ना-तर
दम से उलझता धुआँ और मैं
इस्म-ए-अबद की तलाश-ए-तवील
हुस्न-ए-शुरू-ए-गुमाँ और मैं
मेरी फ़रावानियाँ नौ-ब-नौ
अब है नशात-ए-ज़ियाँ और मैं
दोनों तरफ़ जंगलों का सुकूत
शोर बहुत दरमियाँ और मैं
ख़ाक ओ ख़ला बे-चराग़ और शब
नक़्श ओ नवा बे-निशाँ और मैं
फिर मिरे दिल में कोई ताज़ा खोट
फिर कोई सख़्त इम्तिहाँ और मैं
कब से भटकते हैं बाहम अलग
लम्हा-ए-कम-मेहरबाँ और मैं
दूर छतों पर बरसता था क़हर
चुप रहे क्यूँ तुम यहाँ और मैं
ग़ैर मतालिब कहीं और ढूँड
सहल बहुत शरह-ए-जाँ और मैं
ग़ज़ल
सैर-ए-शब-ए-ला-मकाँ और मैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी