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सैद को रश्क-ए-चमन दाम ने रहने न दिया | शाही शायरी
said ko rashk-e-chaman dam ne rahne na diya

ग़ज़ल

सैद को रश्क-ए-चमन दाम ने रहने न दिया

हक़ीर जहानी

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सैद को रश्क-ए-चमन दाम ने रहने न दिया
नग़्मा-ख़्वाँ क़ैद-ए-बद-अंजाम ने रहने न दिया

अपने साए के तआ'क़ुब में रहे थे दिन-भर
वो भी अब तीरगी-ए-शाम ने रहने न दिया

कुछ मिरे दिल का सुकूँ नज़्र-ए-ग़म-ए-यार हुआ
जो बचा गर्दिश-ए-अय्याम ने रहने न दिया

मैं ने कब की हैं किसी ग़ैर से दिल की बातें
राज़ को राज़ दर-ओ-बाम ने रहने न दिया

उम्र-भर चैन से मुझ को कभी इक लम्हा मिरे
उस दिल-ए-तिश्ना-ए-लब-ए-काम ने रहने न दिया

तेरी फ़ुर्क़त में किसी तौर भी रह लेते मगर
ग़ैर के साथ तिरे नाम ने रहने न दिया

जाँ से गुज़रीं हैं प ग़म है तो उसी बात का है
मुझ को मेरे ही ख़ुश-अंदाम ने रहने न दिया

ख़ुद तिरा अक्स कहीं तुझ को परेशाँ न करे
सच का आईना तिरे सामने रहने न दिया

हम-नफ़स उस का मुझे और मुझे उस का 'हक़ीर'
दिल में पलते हुए औहाम ने रहने न दिया