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सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ | शाही शायरी
sahra mein ghaTa ka muntazir hun

ग़ज़ल

सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ

ज़ुहूर नज़र

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सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ
फिर उस की वफ़ा का मुंतज़िर हूँ

इक बार न जिस ने मुड़ के देखा
उस जान-ए-सबा का मुंतज़िर हूँ

बैठा हूँ दुरून-ए-ख़ाना-ए-ग़म
सैलाब-ए-बला का मुंतज़िर हूँ

जान-ए-आब-ए-बक़ा खोज में है
मैं मौज-ए-फ़ना का मुंतज़िर हूँ

खिल जाऊँगा अपने आप से मैं
तहसीन-ए-सबा का मुंतज़िर हूँ

इस दौर में ख़्वाहिश-ए-तरब है
मदफ़न में हवा का मुंतज़िर हूँ

माज़ी की सज़ा भुगत रहा हूँ
फ़र्दा की सज़ा का मुंतज़िर हूँ

शायद कि वहाँ मफ़र हो ग़म से
तसख़ीर-ए-ख़ला का मुंतज़िर हूँ

हाथों में है मेरे दामन-ए-शब
सूरज की सदा का मुंतज़िर हूँ

बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
तासीर-ए-दुआ का मुंतज़िर हूँ

मेरा तो ख़ुदा कभी नहीं था
मैं किस के ख़ुदा का मुंतज़िर हूँ

कहते हैं जिसे 'नज़र' मुसाफ़िर
उस आबला-पा का मुंतज़िर हूँ