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सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई | शाही शायरी
sahar ko de ke nai nikhat-e-hayat gai

ग़ज़ल

सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई

शमीम करहानी

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सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई
न जाने किस की गली से निकल के रात गई

जुनूँ ने दौलत-ए-दिल को निसार कर डाला
पुकारती ही रही अक़्ल काएनात गई

शब-ए-फ़िराक़ का इतना भी ग़म न कर ऐ दिल
सू-ए-सहर ही गई आज तक जो रात गई

पड़े हैं राह में कुछ फूल ख़ाक-आलूदा
कोई जनाज़ा उठा या कोई बरात गई

'शमीम' अहद-ए-गुज़िश्ता की गुफ़्तुगू न करो
वो दिन गए वो मोहब्बत गई वो बात गई