सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई
न जाने किस की गली से निकल के रात गई
जुनूँ ने दौलत-ए-दिल को निसार कर डाला
पुकारती ही रही अक़्ल काएनात गई
शब-ए-फ़िराक़ का इतना भी ग़म न कर ऐ दिल
सू-ए-सहर ही गई आज तक जो रात गई
पड़े हैं राह में कुछ फूल ख़ाक-आलूदा
कोई जनाज़ा उठा या कोई बरात गई
'शमीम' अहद-ए-गुज़िश्ता की गुफ़्तुगू न करो
वो दिन गए वो मोहब्बत गई वो बात गई

ग़ज़ल
सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई
शमीम करहानी