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सहर जीतेगी या शाम-ए-ग़रीबाँ देखते रहना | शाही शायरी
sahar jitegi ya sham-e-ghariban dekhte rahna

ग़ज़ल

सहर जीतेगी या शाम-ए-ग़रीबाँ देखते रहना

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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सहर जीतेगी या शाम-ए-ग़रीबाँ देखते रहना
ये सर झुकते हैं या दीवार-ए-ज़िंदाँ देखते रहना

हर इक अहल-ए-लहू ने बाज़ी-ए-ईमाँ लगा दी है
जो अब की बार होगा वो चराग़ाँ देखते रहना

इधर से मुद्दई' गुज़़रेंगे ईक़ान-ए-शरीअत के
नज़र आ जाए शायद कोई इंसाँ देखते रहना

उसे तुम लोग क्या समझोगे जैसा हम समझते हैं
मगर फिर भी करेंगे उस से पैमाँ देखते रहना

समझ में आ गया तेरी निगाहों के उलझने पर
भरी महफ़िल में सब का हम को हैराँ देखते रहना

हज़ारों मेहरबाँ इस रास्ते पर साथ आएँगे
मियाँ ये दिल है ये जेब ओ गरेबाँ देखते रहना

दबा रक्खो ये लहरें एक दिन आहिस्ता आहिस्ता
यही बन जाएँगी तम्हीद-ए-तूफ़ाँ देखते रहना