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सहर ही आई न वो शाहिद-ए-सहर आया | शाही शायरी
sahar hi aai na wo shahid-e-sahar aaya

ग़ज़ल

सहर ही आई न वो शाहिद-ए-सहर आया

जावेद अकरम फ़ारूक़ी

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सहर ही आई न वो शाहिद-ए-सहर आया
ग़ुबार-ए-शब का मुसाफ़िर ही मेरे घर आया

थकन की धूप ढली भी नहीं थी सर से अभी
अज़ाब-ए-हुक्म-ए-सफ़र मुझ पे फिर उतर आया

दिया जलाते हुए हाथ काँपते क्यूँ हैं
कहाँ से ख़ौफ़ बदन में हवा का दर आया

ये लम्हा लम्हा बिखरती हुई अना का वजूद
न ये ज़मीन न वो आसमाँ नज़र आया

रिदा रही न बदन पर कोई क़बा शादाब
ये कौन धूप में देखो बरहना-सर आया

बदन तमाम हुआ है लहू-लुहान मिरा
नई रुतों का मुसाफ़िर ब-चश्म-ए-तर आया

बहुत अज़ीज़ है अपने वतन की ख़ाक हमें
जो ख़्वाब आँखों में आया वो मो'तबर आया