सहर ही आई न वो शाहिद-ए-सहर आया
ग़ुबार-ए-शब का मुसाफ़िर ही मेरे घर आया
थकन की धूप ढली भी नहीं थी सर से अभी
अज़ाब-ए-हुक्म-ए-सफ़र मुझ पे फिर उतर आया
दिया जलाते हुए हाथ काँपते क्यूँ हैं
कहाँ से ख़ौफ़ बदन में हवा का दर आया
ये लम्हा लम्हा बिखरती हुई अना का वजूद
न ये ज़मीन न वो आसमाँ नज़र आया
रिदा रही न बदन पर कोई क़बा शादाब
ये कौन धूप में देखो बरहना-सर आया
बदन तमाम हुआ है लहू-लुहान मिरा
नई रुतों का मुसाफ़िर ब-चश्म-ए-तर आया
बहुत अज़ीज़ है अपने वतन की ख़ाक हमें
जो ख़्वाब आँखों में आया वो मो'तबर आया
ग़ज़ल
सहर ही आई न वो शाहिद-ए-सहर आया
जावेद अकरम फ़ारूक़ी