सफ़र-ए-मंज़िल-ए-शब याद नहीं
लोग रुख़्सत हुए कब याद नहीं
अव्वलीं क़ुर्ब की सरशारी में
कितने अरमाँ थे जो अब याद नहीं
दिल में हर वक़्त चुभन रहती थी
थी मुझे किस की तलब याद नहीं
वो सितारा थी कि शबनम थी कि फूल
एक सूरत थी अजब याद नहीं
कैसी वीराँ है गुज़र-गाह-ए-ख़याल
जब से वो आरिज़ ओ लब याद नहीं
भूलते जाते हैं माज़ी के दयार
याद आएँ भी तो सब याद नहीं
ऐसा उलझा हूँ ग़म-ए-दुनिया में
एक भी ख़्वाब-ए-तरब याद नहीं
रिश्ता-ए-जाँ था कभी जिस का ख़याल
उस की सूरत भी तो अब याद नहीं
ये हक़ीक़त है कि अहबाब को हम
याद ही कब थे जो अब याद नहीं
याद है सैर-ए-चराग़ाँ 'नासिर'
दिल के बुझने का सबब याद नहीं
ग़ज़ल
सफ़र-ए-मंज़िल-ए-शब याद नहीं
नासिर काज़मी