EN اردو
सदाक़त सादगी ओढ़े बुलंदी थाम लेती है | शाही शायरी
sadaqat sadgi oDhe bulandi tham leti hai

ग़ज़ल

सदाक़त सादगी ओढ़े बुलंदी थाम लेती है

ताैफ़ीक़ साग़र

;

सदाक़त सादगी ओढ़े बुलंदी थाम लेती है
शहंशह की रसाई को फ़क़ीरी थाम लेती है

उलझ कर रंग-ओ-बू में इश्क़ की मासूम सी बच्ची
मिठाई की दुकानों में जलेबी थाम लेती है

मैं उस के रू-ब-रू हर बात अपनी भूल जाता हूँ
वो कुछ कहने जो आती है सहेली थाम लेती है

ये किस का दिल दुखा कर अपने गाँव से मैं निकला हूँ
गली हर मोड़ पर मेरी कलाई थाम लेती है

बयाँ अपना बदल कर आ गया है जब से फ़रियादी
गवाही देने वालों को कचेहरी थाम लेती है

करम का शुक्रिया लेकिन न समझो ना-समझ हम को
नवाज़िश का हर इक मक़्सद ग़रीबी थाम लेती है

कोई ख़ुशबू जवाँ होती है मेरे गाँव में जब भी
हवा यूँ रुख़ बदलती है हवेली थाम लेती है

मिरी सैराबियों को तिश्नगी पर छोड़ दो यारो
ये नागिन ख़ुद-ब-ख़ुद अपना मदारी थाम लेती है

यहाँ इक शम्अ रौशन करना भी आसाँ नहीं इतना
ज़रा सी चूक होने पर हथेली थाम लेती है

क़सीदा क्या लिखूँ 'सागर' तुम्हारी शान-ओ-शौकत का
यहाँ तो बादशाहत भी कटोरी थाम लेती है