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सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है | शाही शायरी
sada fikr-e-rozi hai ta zindagi hai

ग़ज़ल

सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
जो जीना यही है तो क्या ज़िंदगी है

छुपा मुँह न अपना कि मर जाएँगे हम
परी-रू तिरा देखना ज़िंदगी है

मुझे ख़िज़्र से दो न जीने में निस्बत
कि उस की ब-आब-ए-बक़ा ज़िंदगी है

तिरी बेवफ़ाई का शिकवा करें क्या
ख़ुद अपनी ही याँ बेवफ़ा ज़िंदगी है

अजल के सिवा उस की दारू नहीं कुछ
अजब दर्द दूर-अज़-दवा ज़िंदगी है

तू गुलशन में रह गुल ये कहता था उस से
तिरे दम से मेरी सबा ज़िंदगी है

जिन्हों ने किया है दिल आईना अपना
उन्हीं लोगों की बा-सफ़ा ज़िंदगी है

कहाँ की हवा तक रहा है तू नादाँ
कि पल मारते याँ हवा ज़िंदगी है

न हम मुफ़्त मरते हैं कू-ए-बुताँ में
कि मरने से याँ मुद्दआ ज़िंदगी है

तू ऐ 'मुसहफ़ी' गर है आशिक़ फ़ना हो
कि आशिक़ को बाद-अज़-फ़ना ज़िंदगी है