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सद-शुक्र बुझ गई तिरी तलवार की हवस | शाही शायरी
sad-shukr bujh gai teri talwar ki hawas

ग़ज़ल

सद-शुक्र बुझ गई तिरी तलवार की हवस

जलाल लखनवी

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सद-शुक्र बुझ गई तिरी तलवार की हवस
क़ातिल यही थी तेरे गुनहगार की हवस

मुर्दे को भी मज़ार में लेने न देगी चैन
ता-हश्र तेरे साया-ए-दीवार की हवस

सौ बार आए ग़श अरिनी ही कहूँगा मैं
मूसा नहीं कि फिर हो न दीदार की हवस

रिज़वाँ कहाँ ये ख़ुल्द ओ इरम और मैं कहाँ
आए थे ले के कूचा-ए-दिलदार की हवस

सय्याद जब क़फ़स से निकाला था बहर-ए-ज़ब्ह
पूछी तो होती मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार की हवस

यूसुफ़ को तेरी चाह के सौदे की आरज़ू
ईसा को तेरे इश्क़ के आज़ार की हवस

दस्त-ए-हवा-ए-गुल में गरेबान है मिरा
दामन जुनूँ में खींचती है ख़ार की हवस

जब हो किसी का रिश्ता-ए-उल्फ़त गले का तौक़
दीवाना-पन है सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार की हवस

माने है ज़ब्त चर्ख़ फुंके क्यूँकर ऐ 'जलाल'
किस तरह निकले आह-ए-शरर-बार की हवस