सद-शुक्र बुझ गई तिरी तलवार की हवस
क़ातिल यही थी तेरे गुनहगार की हवस
मुर्दे को भी मज़ार में लेने न देगी चैन
ता-हश्र तेरे साया-ए-दीवार की हवस
सौ बार आए ग़श अरिनी ही कहूँगा मैं
मूसा नहीं कि फिर हो न दीदार की हवस
रिज़वाँ कहाँ ये ख़ुल्द ओ इरम और मैं कहाँ
आए थे ले के कूचा-ए-दिलदार की हवस
सय्याद जब क़फ़स से निकाला था बहर-ए-ज़ब्ह
पूछी तो होती मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार की हवस
यूसुफ़ को तेरी चाह के सौदे की आरज़ू
ईसा को तेरे इश्क़ के आज़ार की हवस
दस्त-ए-हवा-ए-गुल में गरेबान है मिरा
दामन जुनूँ में खींचती है ख़ार की हवस
जब हो किसी का रिश्ता-ए-उल्फ़त गले का तौक़
दीवाना-पन है सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार की हवस
माने है ज़ब्त चर्ख़ फुंके क्यूँकर ऐ 'जलाल'
किस तरह निकले आह-ए-शरर-बार की हवस

ग़ज़ल
सद-शुक्र बुझ गई तिरी तलवार की हवस
जलाल लखनवी