सद-बर्ग गह दिखाई है गह अर्ग़वाँ बसंत
लाई है एक ताज़ा शगूफ़ा यहाँ बसंत
भर भर के गुलिस्ताँ में मय-ए-ऐश-ओ-जश्न से
देती है हर घड़ी मुझे रित्ल-ए-गराँ बसंत
तू उठ चला तो ज़र्द हुए सब के रंग-ए-रू
कल आ गई बहार में ये ना-गहाँ बसंत
आते नज़र हैं दश्त-ओ-जबल ज़र्द हर तरफ़
है अब के साल ऐसी है ऐ दोस्ताँ बसंत
शादाबी-ए-नसीम से बहर-ए-सुरूर को
करती है जोश मार के अब बे-कराँ बसंत
गर फ़िल-मसल मलाइका हों अहल-ए-ज़ोहद सब
ले आवे बहर-ए-सैर उन्हें मू-कशाँ बसंत
पत्ते नहीं चमन में खड़कते तिरे बग़ैर
करती है इस लिबास में हर-दम फ़ुग़ाँ बसंत
गर शाख़-ए-ज़ाफ़राँ उसे कहिए तो है रवा
है फ़रह-बख़्श वाक़ई इस हद कोहाँ बसंत
गुरवा बना के रीश-ए-मोख़ज़्ज़ब से मोहतसिब
जाता है उस मक़ाम में जावे जहाँ बसंत
'इंशा' से शैख़ पूछता है क्या सलाह है
तर्ग़ीब-ए-बादा दी है मुझे ऐ जवाँ बसंत
ग़ज़ल
सद-बर्ग गह दिखाई है गह अर्ग़वाँ बसंत
इंशा अल्लाह ख़ान