सच तो बैठ के खाता है
झूठ कमा कर लाता है
याद भी कोई आता है
याद तो रख जाता है
जैसे लफ़्ज़ हों वैसा ही
मुँह का मज़ा हो जाता है
फिर दुश्मन बढ़ जाएँगे
किस को दोस्त बनाता है
कैसी ख़ुश्क हवाएँ हैं
सुब्ह से दिन चढ़ जाता है
उसे घटा कर दुनिया में
बाक़ी क्या रह जाता है
जाने वो इस चेहरे पर
किस का धोका खाता है
इश्क़ से बढ़ कर कौन हमें
दुनिया-दार बनाता है
दिल जैसा मा'सूम भी आज
अपनी अक़्ल चलाता है
कुछ तो है जो सिर्फ़ यहाँ
मेरी समझ में आता है
मुश्किल सुन ली जाती है
कोई करम फ़रमाता है
ग़ज़ल
सच तो बैठ के खाता है
शारिक़ कैफ़ी

