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सब थकन आँख में सिमट जाए | शाही शायरी
sab thakan aankh mein simaT jae

ग़ज़ल

सब थकन आँख में सिमट जाए

सलीम शाहिद

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सब थकन आँख में सिमट जाए
नींद आ जाए रात कट जाए

रू-ब-रू हों तो गुफ़्तुगू भी करें
कौन आवाज़ से लिपट जाए

वहम ये है कि बंद दरवाज़ा
देख कर ही न वो पलट जाए

सीख दरिया से कोह-पैमाई
कोई क्यूँ रास्ते से हट जाए

कौन मारेगा दूसरा पत्थर
कोई सूरत कि दर्द बट जाए

मैं हवा हूँ कि चल रहा हूँ हनूज़
अरसा-ए-दहर ही न कट जाए

बे-दिली ख़िलअत-ए-नदामत है
इक बला है अगर चिमट जाए

अपने चेहरे को ढाँप ढाँप के रख
आइना गर्द से न अट जाए