सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो
हम-नशीं कोई न हो और राज़-दाँ कोई न हो
मरिए इस हसरत में गर क़ातिल न हाथ आवे कहीं
रोइए अपने पे ख़ुद गर नौहा-ख़्वाँ कोई न हो
बीच में है मेरे उस के तू ही ऐ आह-ए-हज़ीं
सुल्ह क्यूँकर होवे जब तक दरमियाँ कोई न हो
शिकवा किस से कीजिए ख़ालिक़ की मर्ज़ी है यही
नुक्ता-चीं पैदा हों लाखों नुक्ता-दाँ कोई न हो
मुझ तलक क़ातिल तो क़ातिल मौत भी आती नहीं
किस को दीजे जान जब ख़्वाहान-ए-जाँ कोई न हो
माने गर कोई नसीहत 'आरिफ़'-ए-दिल-ख़स्ता की
भूल कर भी वाला-ए-आतिश-बजाँ कोई न हो
ग़ज़ल
सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़