सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं
हम ग़ज़ल में भी हुनर यार के रख देते हैं
शायद आ जाएँ कभी चश्म-ए-ख़रीदार में हम
जान ओ दिल बीच में बाज़ार के रख देते हैं
ताकि ता'ना न मिले हम को तुनुक-ज़र्फ़ी का
हम क़दह सामने अग़्यार के रख देते हैं
अब किसे रंज-ए-असीरी कि क़फ़स में सय्याद
सारे मंज़र गुल-ओ-गुलज़ार के रख देते हैं
ज़िक्र-ए-जानाँ में ये दुनिया को कहाँ ले आए
लोग क्यूँ मसअले बेकार के रख देते हैं
वक़्त वो रंग दिखाता है कि अहल-ए-दिल भी
ताक़-ए-निस्याँ पे सुख़न यार के रख देते हैं
ज़िंदगी तेरी अमानत है मगर क्या कीजे
लोग ये बोझ भी थक-हार के रख देते हैं
हम तो चाहत में भी 'ग़ालिब' के मुक़ल्लिद हैं 'फ़राज़'
जिस पे मरते हैं उसे मार के रख देते हैं
ग़ज़ल
सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं
अहमद फ़राज़