सब को है मंज़ूर उस रुख़्सार-ए-गुल-गूँ की तरफ़
देखता है कौन मेरी चश्म-ए-पुर-ख़ूँ की तरफ़
साथ नाक़ा के ख़ुदा जाने किधर रम कर गई
गर्द-ए-महमिल भी न पहुँची आह मजनूँ की तरफ़
जान-ओ-दिल में बे-तरह बिगड़ी है तेरे इश्क़ में
कीजिए दिल की तरफ़ या जान-ए-महज़ूँ की तरफ़
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ है रोज़-ओ-शब क्या देखते रहते हो तुम
मुंसिफ़ी से टुक तो देखो अपने मफ़्तूँ की तरफ़
ख़िज़्र तक कीजो मदद तू भी कि ता भूले न राह
नाक़ा-ए-लैला चला है आज मजनूँ की तरफ़
गरचे हैं तेरी ही गर्दिश से निगह की हम ख़राब
पर इशारा इस का कर देते हैं गर्दूं की तरफ़
क्यूँकि आवे चैन तेरे वहशियों को ब'अद-ए-मर्ग
ख़ाक हो कर जब तलक जावें न हामूँ की तरफ़
नाम में भी है अयाँ आशिक़ की आशुफ़्ता-सरी
देखते तो होगे अक्सर बेद-ए-मजनूँ की तरफ़
बस-कि उस की ज़ुल्फ़ के आशुफ़्ता हैं हम ऐ 'हसन'
शेर में भी ध्यान है पेचीदा मज़मूँ की तरफ़
ग़ज़ल
सब को है मंज़ूर उस रुख़्सार-ए-गुल-गूँ की तरफ़
मीर हसन