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सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे | शाही शायरी
sab gham kahen jise ki tamanna kahen jise

ग़ज़ल

सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे

ताबिश देहलवी

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सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे
वो इज़्तिराब-ए-शौक़ है हम क्या कहें जिसे

है जोहद-ए-मुनफ़रिद सबब-ए-कारोबार-ए-दहर
इक इज़्तिराब-ए-क़तरा है दरिया कहें जिसे

नेमत का ए'तिबार है हुस्न-ए-क़ुबूल से
इशरत भी एक ग़म है गवारा कहें जिसे

मिलता नहीं है अहल-ए-जुनूँ का कोई सुराग़
बस एक नक़्श-ए-पा है कि सहरा कहें जिसे

पहले हयात-ए-शौक़ थी अल्लाह-रे इंक़लाब
अब ए'तिबार-ए-ग़म है तमन्ना कहें जिसे

है मेरे काएनात-ए-तसव्वुर का इक फ़रेब
वो जल्वा-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे

कुछ कम-निगाहियाँ हैं तजल्ली की आड़ से
ऐसी भी इक निगाह-ए-तमाशा कहें जिसे

तन्हाई-ए-ख़याल से 'ताबिश' ये हाल है
ऐसा कोई नहीं कि हम अपना कहें जिसे