सब चले तेरे आस्ताँ को छोड़
बद-ज़बाँ अब तो इस ज़बाँ को छोड़
मत उठा यार तेरे कूचे में
आन बैठे हैं दो जहाँ को छोड़
वक़्त-ए-सख़्ती के आह जाती है
जान भी जिस्म-ए-ना-तावाँ को छोड़
सोहबत-ए-रास्त कब हो कज से बरार
तीर आख़िर चला कमाँ को छोड़
दस्त-ए-बे-दाद-ए-बाग़बाँ से आह
हम चले आख़िर आशियाँ को छोड़
बाग़ से वो फिरा तो मुर्ग़-ए-चमन
लग चले साथ गुल्सिताँ को छोड़
ना-तवानी से मिस्ल-ए-नक़्श-ए-क़दम
रहे नाचार कारवाँ को छोड़
हम-नशीं कह तमाम क़िस्सा-ए-इश्क़
आज-कल पर न दास्ताँ को छोड़
ये मिरा हाल है जो वो क़ातिल
उठ गया दम के मेहमाँ को छोड़
जिस तरह फेर हल्क़ पर ख़ंजर
दे कोई मुर्ग़-ए-नीम-जाँ को छोड़
कर जवानी पे रहम 'जुरअत' की
बस ग़म-ए-इश्क़ इस जवाँ को छोड़
ग़ज़ल
सब चले तेरे आस्ताँ को छोड़
जुरअत क़लंदर बख़्श