EN اردو
सब चले तेरे आस्ताँ को छोड़ | शाही शायरी
sab chale tere aastan ko chhoD

ग़ज़ल

सब चले तेरे आस्ताँ को छोड़

जुरअत क़लंदर बख़्श

;

सब चले तेरे आस्ताँ को छोड़
बद-ज़बाँ अब तो इस ज़बाँ को छोड़

मत उठा यार तेरे कूचे में
आन बैठे हैं दो जहाँ को छोड़

वक़्त-ए-सख़्ती के आह जाती है
जान भी जिस्म-ए-ना-तावाँ को छोड़

सोहबत-ए-रास्त कब हो कज से बरार
तीर आख़िर चला कमाँ को छोड़

दस्त-ए-बे-दाद-ए-बाग़बाँ से आह
हम चले आख़िर आशियाँ को छोड़

बाग़ से वो फिरा तो मुर्ग़-ए-चमन
लग चले साथ गुल्सिताँ को छोड़

ना-तवानी से मिस्ल-ए-नक़्श-ए-क़दम
रहे नाचार कारवाँ को छोड़

हम-नशीं कह तमाम क़िस्सा-ए-इश्क़
आज-कल पर न दास्ताँ को छोड़

ये मिरा हाल है जो वो क़ातिल
उठ गया दम के मेहमाँ को छोड़

जिस तरह फेर हल्क़ पर ख़ंजर
दे कोई मुर्ग़-ए-नीम-जाँ को छोड़

कर जवानी पे रहम 'जुरअत' की
बस ग़म-ए-इश्क़ इस जवाँ को छोड़