साज़-ए-हस्ती का अजब जोश नज़र आता है
इक ज़माना हमा-तन-गोश नज़र आता है
हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार हो पूरी क्यूँकर
वो तसव्वुर में भी रू-पोश नज़र आता है
देखते जाओ ज़रा शहर-ए-ख़मोशाँ का समाँ
कि ज़माना यहाँ ख़ामोश नज़र आता है
आप के नश्तर-ए-मिज़्गाँ को चुभो लेता हूँ
ख़ून-ए-दिल में जो कभी जोश नज़र आता है
आप ही सिर्फ़ जफ़ा-कोश नज़र आते हैं
सारा आलम तो वफ़ा-कोश नज़र आता है
मौसम-ए-गुल न रहा दिल न रहा जी न रहा
फिर भी वहशत का वही जोश नज़र आता है
शाना-ए-यार पे बिखरी तो नहीं ज़ुल्फ़-ए-दराज़
हर कोई ख़ानुमाँ बर-दोश नज़र आता है
जल्वा-ए-क़ुदरत-ए-बारी का मुअम्मा न खुला
रू-ब-रू रह के भी रू-पोश नज़र आता है
फिर ज़रा ख़ंजर-ए-क़ातिल को ख़बर दे कोई
ख़ून-ए-'बिस्मिल' में वही जोश नज़र आता है
ग़ज़ल
साज़-ए-हस्ती का अजब जोश नज़र आता है
बिस्मिल इलाहाबादी