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साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ | शाही शायरी
sath mein aghyar ke main bhi saf-e-maqtal mein hun

ग़ज़ल

साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ

हातिम अली मेहर

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साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ
सूरत-ए-तरकीब-ए-मौज़ूँ मिस्रा-ए-मोहमल में हूँ

मुझ सा रंगीं-तब्अ' है तीरा-दरूनों में ख़राब
मैं शराब-ए-अर्ग़वानी हूँ मगर बोतल में हूँ

गंदहा-ए-ना-तराशीदा हैं हम सोहबत मिरी
इन दिनों तो मैं भी ख़ुशबू की तरह संदल में हूँ

आदमी बे-हिस-ओ-मस मैं सूरत-ए-मर्दुम गियाह
शहर में हूँ मैं इलाही या किसी जंगल में हूँ

पर्दा-दार-ए-गिर्या-ए-बे-इख़्तियारी फ़क़्र है
बर्क़ है अब्र-ए-सियह में और मैं कम्मल में हूँ

हासिल-ए-नेकी हूँ नेकों को बदों को बद हूँ 'मेहर'
मेरा ही परतव अनत में है मैं ही हंज़ल में हूँ