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सारे कुश्तों से जुदा ढंग इज़्तिराब-ए-दिल का है | शाही शायरी
sare kushton se juda Dhang iztirab-e-dil ka hai

ग़ज़ल

सारे कुश्तों से जुदा ढंग इज़्तिराब-ए-दिल का है

अनवरी जहाँ बेगम हिजाब

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सारे कुश्तों से जुदा ढंग इज़्तिराब-ए-दिल का है
क्यूँ न हो बिस्मिल भी तो किस चुलबुले क़ातिल का है

छुप नहीं सकता वो ख़ून अपने दिल-ए-बिस्मिल का है
मिट नहीं सकता जो धब्बा दामन-ए-क़ातिल का है

इम्तिहाँ मद्द-ए-नज़र किस मनचले बिस्मिल का है
मा'रका आरा जो यूँ हर नाज़ उस क़ातिल का है

बे-इजाज़त उठ के सीना से लगाए आप को
हौसला इतना भी इक अरमान वाले दिल का है

आप को याद आ गईं हैं किस की बज़्म-आराइयाँ
हज़रत-ए-दिल कहिए तो क़स्द आज किस महफ़िल का है

उस तरफ़ मचला हुआ है वस्ल में वो चुलबुला
इस तरफ़ जोश-ए-इज़्तिराब आरज़ू-ए-दिल का है

वस्ल की शब ख़ून करना आरज़ू-ए-वस्ल का
ओ तमन्नाओं के दुश्मन काम ये क़ातिल का है

मार्का-आराईयाँ हैं आज हुस्न-ओ-इश्क़ की
सामना इस जल्वा-गह में दिलरुबा से दिल का है

अपने आधी रात को आने का बाइ'स क्यूँ बने
वो कहीं क़ाइल भी जज़्ब-ए-उल्फ़त-ए-कामिल का है

मौत आई है मुझे ओ बहर-ए-ख़ूबी वस्ल में
मेरा बेड़ा डूबने वाला लब-ए-साहिल का है

सीना से सीना मिला देना तो कुछ मुश्किल नहीं
यार मुश्किल तो तिरे दिल से मिलाना दिल का है

शोख़ी-ए-क़ातिल में है बिस्मिल का रंग-ए-इज़्तिराब
रंग बिस्मिल की तड़प में शोख़ी-ए-क़ातिल का है