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साक़ी भी मय-ए-गुलफ़ाम भी है रिंदों को सला-ए-आम भी है | शाही शायरी
saqi bhi mai-e-gulfam bhi hai rindon ko sala-e-am bhi hai

ग़ज़ल

साक़ी भी मय-ए-गुलफ़ाम भी है रिंदों को सला-ए-आम भी है

मसूद अख़्तर जमाल

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साक़ी भी मय-ए-गुलफ़ाम भी है रिंदों को सला-ए-आम भी है
गर्दिश में छलकता जाम भी है बहकें तो मगर इल्ज़ाम भी है

सब कुछ मैं लुटा देता लेकिन क्या कहिए कि उन की नज़रों में
हुश्यारी की तल्क़ीन भी है सर-मस्ती का पैग़ाम भी है

तनवीर-ए-नुमूद-ए-सुब्ह भी है आरिज़ के दमकते जल्वों में
ज़ुल्फ़ों के मचलते साए में तस्वीर-ए-सवाद-ए-शाम भी है

ऐ दिल ये जुनूँ की मंज़िल है कुछ सूद-ओ-ज़ियाँ की फ़िक्र न कर
हर गाम पे याँ रहरव के लिए आग़ाज़ भी है अंजाम भी है

अब दैर-ओ-हरम की शोरिश को ऐ वाइज़-ए-नादाँ भूल भी जा
ये बज़्म कि बज़्म-ए-रिंदाँ है याँ कुफ़्र भी है इस्लाम भी है

शोहरत भी मिली इज़्ज़त भी मिली लेकिन ये 'जमाल'-ए-नग़्मा-सरा
दिल-गीर भी है बरबाद भी है नाशाद भी है नाकाम भी है