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सालिम यक़ीन-ए-अज़्मत-ए-सेहर-ए-ख़ुदा न तोड़ | शाही शायरी
salim yaqin-e-azmat-e-sehr-e-KHuda na toD

ग़ज़ल

सालिम यक़ीन-ए-अज़्मत-ए-सेहर-ए-ख़ुदा न तोड़

सलीम शुजाअ अंसारी

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सालिम यक़ीन-ए-अज़्मत-ए-सेहर-ए-ख़ुदा न तोड़
मायूस हो के कासा-ए-दस्त-ए-दुआ न तोड़

शीराज़ा-ए-हयात बिखर जाएगा मिरा
ऐ संग-ज़ाद शीशा-ए-अहद-ए-वफ़ा न तोड़

कुछ और होने दे रह-ए-मंज़िल को तेज़-गाम
ऐ ख़िज़्र तू अभी मिरी ज़ंजीर-ए-पा न तोड़

तेशे की ज़र्ब सह नहीं सकता हर इक वजूद
आज़र हर एक पैकर-ए-संग-ए-अना न तोड़

चेहरे की सिलवटों का सबब आइना नहीं
नाचारगी-ए-उम्र-ए-रुख़-ए-आइना न तोड़

इस मुतरिब हयात में ज़िंदा है रागनी
रुक मुतरिबा अभी तू ये साज़-ए-सदा न तोड़

बेदार हो न जाएँ बदन की ज़रूरतें
ऐ शौक़-ए-बे-पनाह फ़सील-ए-हया न तोड़

'सालिम'-शुजाअ' मौत की है आरज़ू हराम
आईना-ए-हयात को यूँ बे-ख़ता न तोड़