साहिल पे अब चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो क्या
ग़र्क़ाब हम को कर के ये सामाँ हुए तो क्या
बे-रंग-ओ-बू है दामन-ए-अहल-ए-चमन अभी
क़तरे लहू के सर्फ़-ए-बहाराँ हुए तो क्या
बे-कार है बहार जो आए न वक़्त पर
गर मेरे बा'द ऐश के सामाँ हुए तो क्या
हम बुत-कदे में रह के भी ईमाँ-परस्त हैं
वाइज़ हरम में रह के मुसलमाँ हुए तो क्या
गर ला-इलाज हो गया दर्द-ए-दिल-ए-फ़िगार
फिर चारासाज़ माइल-ए-दर्मां हुए तो क्या
माथे पे तो कलंक का टीका है आज तक
हम को मिटा के लोग नुमायाँ हुए तो क्या
ख़्वाबीदा अब भी नज़रें हैं बे-हिस है अब भी दिल
ना आश्ना-ए-सोज़ ग़ज़ल-ख़्वाँ हुए तो क्या
दामन से ख़ून दिल को बनाना था रश्क-ए-गुल
मिन्नत-कश-ए-बहार-ए-गुलिस्ताँ हुए तो क्या
'कशफ़ी' मिटा सके न मगर ज़ुल्मत-ए-नसीब
आँसू हमारे ज़ीनत-ए-मिज़्गाँ हुए तो क्या

ग़ज़ल
साहिल पे अब चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो क्या
कशफ़ी लखनवी