EN اردو
साए में आबलों की जलन और बढ़ गई | शाही शायरी
sae mein aablon ki jalan aur baDh gai

ग़ज़ल

साए में आबलों की जलन और बढ़ गई

एजाज़ रहमानी

;

साए में आबलों की जलन और बढ़ गई
थक कर जो बैठे हम तो थकन और बढ़ गई

कल इस क़दर था हब्स हमारे मकान में
सनकी हवा ज़रा तो घुटन और बढ़ गई

काँटों की गुफ़्तुगू से ख़लिश दिल में कम न थी
फूलों के तज़्किरे से चुभन और बढ़ गई

ये बाग़बाँ हमारे लहू का कमाल है
नैरंगी-ए-बहार-ए-चमन और बढ़ गई

ये हिज्र की है आग मिज़ाज उस का और है
अश्कों से शो'लगी-ए-बदन और बढ़ गई

सैराब कर सका न उसे मेरा ख़ून भी
कुछ तिश्नगी-ए-दार-ओ-रसन और बढ़ गई

हर्फ़-ए-सिपास पेश किया जब भी वो मिला
लेकिन जबीं पे उस की शिकन और बढ़ गई

तहरीर की जो एक ग़ज़ल उस के नाम पर
'एजाज़' आबरू-ए-सुख़न और बढ़ गई