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साए जो संग-ए-राह थे रस्ते से हट गए | शाही शायरी
sae jo sang-e-rah the raste se haT gae

ग़ज़ल

साए जो संग-ए-राह थे रस्ते से हट गए

सैफ़ ज़ुल्फ़ी

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साए जो संग-ए-राह थे रस्ते से हट गए
दिल जल उठा तो ख़ुद ही अँधेरे सिमट गए

दिन भर जले जो धूप के बिस्तर पे दोस्तो
सूरज छुपा तो चादर-ए-शब में सिमट गए

वो कर्ब था कि दिल का लहू आँच दे उठा
ऐसी हवा चली कि गरेबान फट गए

वो फ़िक्र थी कि दीदा-ओ-दिल मुज़्महिल हुए
वो गर्द थी कि घर के दर-ओ-बाम अट गए

आई जो मौज पाँव ज़मीं पर न जम सके
दरिया चढ़ा तो कितने सफ़ीने उलट गए

फैला ग़ुबार-ए-ग़म तो कहीं मुँह छुपा लिया
आँधी उठी तो घर के सुतूँ से लिपट गए

कहते थे जिस को क़ुर्ब वही फ़ासला बना
बदला जो रुख़ नदी ने कई शहर कट गए

गुमनाम थे तो सब की तरफ़ देखते थे हम
शोहरत मिली तो अपनी ख़ुदी में सिमट गए

दस्तक हुई तो दिल का दरीचा न खुल सका
आए और आ के याद के झोंके पलट गए

मैं ख़ुद ही अपनी राह का पत्थर बना रहा
हर चंद आप भी मिरे रस्ते से हट गए

दिल को किसी की याद का ग़म चाटता रहा
यूँ मेरी ज़िंदगी के कई साल घट गए

ज़िंदान-ए-ग़म का ध्यान भी ख़ंजर से कम न था
ज़ंजीर की खनक से मिरे पाँव कट गए

रिसते रहेंगे दीदा-ए-हसरत से उम्र भर
'ज़ुल्फ़ी' जो ज़ख़्म पा-ए-तलब से चिमट गए