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रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं | शाही शायरी
ruh ki mang hai wo jism ka saman nahin

ग़ज़ल

रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं

फ़ातिमा हसन

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रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं
उस का मिलना मुझे मुश्किल न हो आसान नहीं

कोई दम और है बस ख़ाक हुए जाने में
ख़ाक भी ऐसी कि जिस की कोई पहचान नहीं

ठेस कुछ ऐसी लगी है कि बिखरना है उसे
दिल में धड़कन की जगह दर्द है और जान नहीं

बोझ है इश्क़ तो फिर कैसे सँभालें उस को
दूर तक साथ चलें इस का तो इम्कान नहीं

मुख़्तलिफ़ सम्त बहाए लिए जाता है हमें
वक़्त के साथ हमारा कोई पैमान नहीं

फ़ातिमा दर्द के रिश्ते से किनारा करना
बे-हिसी कह लो इसे ये कोई निरवान नहीं