रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही
ज़ख़्मी यादों को आँचल से ढकती रही
मेरे हाथों में थीं गर्द की चादरें
ज़िंदगी थी के दामन झटकती रही
चाँदनी में हसीं ज़हर घुलता रहा
सर को मरमर पे नागिन पटकती रही
मैं घटाओं से ख़ुद को बचाती रही
तेग़ बिजली की सर पे लटकती रही
मेरे होंटों को कब मिल सकी बाँसुरी
साँस 'ज़र्रीं' लबों पे अटकती रही

ग़ज़ल
रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही
इफ़्फ़त ज़र्रीं