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रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही | शाही शायरी
ruh jismon se bahar bhaTakti rahi

ग़ज़ल

रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही

इफ़्फ़त ज़र्रीं

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रूह जिस्मों से बाहर भटकती रही
ज़ख़्मी यादों को आँचल से ढकती रही

मेरे हाथों में थीं गर्द की चादरें
ज़िंदगी थी के दामन झटकती रही

चाँदनी में हसीं ज़हर घुलता रहा
सर को मरमर पे नागिन पटकती रही

मैं घटाओं से ख़ुद को बचाती रही
तेग़ बिजली की सर पे लटकती रही

मेरे होंटों को कब मिल सकी बाँसुरी
साँस 'ज़र्रीं' लबों पे अटकती रही