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रुलवा के मुझ को यार गुनहगार कर नहीं | शाही शायरी
rulwa ke mujhko yar gunahgar kar nahin

ग़ज़ल

रुलवा के मुझ को यार गुनहगार कर नहीं

आग़ा हज्जू शरफ़

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रुलवा के मुझ को यार गुनहगार कर नहीं
आँखें हैं तर तो हों मिरा दामन तो तर नहीं

उम्मीद-ए-वस्ल से भी तो सदमा न कम हुआ
क्या दर्द जाएगा जो दवा का असर नहीं

दिन को भी दाग़-ए-दिल की न कम होगी रौशनी
ये लौ ही और है ये चराग़-ए-सहर नहीं

तन्हा चलें हैं मारका-ए-इश्क़ झेलने
उन की तरफ़ ख़ुदाई है कोई इधर नहीं

ख़ाली सफ़ाई-क़ल्ब से बेहतर है दाग़-ए-इश्क़
क्या ऐब है कि जिस के मुक़ाबिल हुनर नहीं

क़ातिल की राह देख ले दम भर न ज़हर खा
ऐ दिल क़ज़ा को आने दे बे-मौत मर नहीं

क्यूँकर यहाँ न एक ही करवट पड़ा रहूँ
हू का मक़ाम गोर की मंज़िल है घर नहीं

रन-खन पड़ेंगे जब कहीं दिखलाएगा वो शक्ल
बे-किश्त-ए-ख़ूँ हुई ये मुहिम हो के सर नहीं

आँखें झपक रही हैं मिरी बर्क़-ए-हुस्न से
पेश-ए-नज़र हो तुम मुझे ताब-ए-नज़र नहीं

यारो बताओ किस तरफ़ आँखें बिछाऊँ मैं
उस शोख़ की किधर को है आमद किधर नहीं

बंदा-नवाज़ सब हैं रुकू ओ सुजूद में
ताअत से ग़ाफ़िल आप की कोई बशर नहीं

परियों के पास जाऊँ मैं क्यूँ दिल को बेचने
सौदा जो मोल लूँ ये मुझे दर्द-ए-सर नहीं

दर्द-ए-फ़िराक़-ए-यार से दोनों हैं बे-क़रार
क़ाबू में दिल नहीं मुतहम्मिल जिगर नहीं

राह-ए-अदम में साथ रहेगी तिरी हवस
पर्वा नहीं न हो जो कोई हम-सफ़र नहीं

ख़ल्वत-सरा-ए-यार में पहुँचेगा क्या कोई
वो बंद-ओ-बस्त है कि हवा का गुज़र नहीं

उठवा के अपनी बज़्म से दिल को मिरे न तोड़
पहलू में दे के जा मुझे बर्बाद कर नहीं

हस्ती किधर है आलम-ए-अर्वाह है कहाँ
ग़फ़लत-ज़दा हूँ मुझ को कहीं की ख़बर नहीं

ज़ंजीर उतर गई तिरा दीवाना मर गया
सन्नाटा क़ैद-ख़ाने में है शोर-ओ-शर नहीं

चंद्रा के मुझ को बोले वो आख़िर जो शब हुई
फ़क़ हो गया है रंग किसी का सहर नहीं

बरपा है हश्र-ओ-नश्र जो रफ़्तार-ए-यार से
ये कौन सा चलन है क़यामत अगर नहीं

दुर्र-ए-नजफ़ तो जिस्म है उस नाज़नीन का
मू-ए-नजफ़ में बाल पड़ा है कमर नहीं

दीदार का लगा के मैं आया हूँ आसरा
उम्मीद-वार हूँ मुझे मायूस कर नहीं

यारो सितम हुआ हुई आख़िर शब-ए-विसाल
सीना 'शरफ़' ये कूट रहे हैं गजर नहीं