EN اردو
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा | शाही शायरी
ruKH zulf mein be-naqab dekha

ग़ज़ल

रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
मैं तीरा-शब आफ़्ताब देखा

महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
पानी से तही हबाब देखा

सुर्ख़ी से तिरे लबों की हम ने
आतिश को मियान-ए-आब देखा

क़ासिद का सर आया उस गली से
नामे का मिरे जवाब देखा

जाना ये हम ने वफ़ात के बअ'द
देखा जो जहाँ में ख़्वाब देखा

आफ़त का निशाना हो चुका था
मैं दिल की तरफ़ शिताब देखा

इक वज़्अ' नहीं मिज़ाज-ए-माशूक़
गह लुत्फ़ ओ गहे इताब देखा

आँखों से बहारें गुज़रीं क्या क्या
किस किस का न मैं शबाब देखा

कल मय-कदे में बग़ैर साक़ी
औंधा क़दह-ए-शराब देखा

कीं उस ने जफ़ाएँ बे-हिसाबी
इक दिन न कभू हिसाब देखा

सीने से निकल पड़ा न आख़िर
दिल का मिरे इज़्तिराब देखा

क्या होगी फ़लाह बअ'द-ए-मुर्दन
जीते तो सदा अज़ाब देखा

आबादी है उस की 'मुसहफ़ी' कम
आलम के तईं ख़राब देखा