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रुख़ से नक़ाब उन के जो हटती चली गई | शाही शायरी
ruKH se naqab un ke jo haTti chali gai

ग़ज़ल

रुख़ से नक़ाब उन के जो हटती चली गई

तौक़ीर अहमद

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रुख़ से नक़ाब उन के जो हटती चली गई
चादर सी एक नूर की बिछती चली गई

आए वो मेरे घर पे तो जाने ये क्या हुआ
हर एक चीज़ ख़ुद से निखरती चली गई

गुज़रा जिधर जिधर से मिरा प्यार दोस्तो
ख़ुशबू उधर हवाओं में घुलती चली गई

आई बहार अब के चमन में कुछ इस तरह
गुल की हर एक शाख़ लचकती चली गई

'तौक़ीर' कर चुका था समुंदर से दोस्ती
कश्ती भँवर से उस की गुज़रती चली गई