रुख़ से नक़ाब उन के जो हटती चली गई
चादर सी एक नूर की बिछती चली गई
आए वो मेरे घर पे तो जाने ये क्या हुआ
हर एक चीज़ ख़ुद से निखरती चली गई
गुज़रा जिधर जिधर से मिरा प्यार दोस्तो
ख़ुशबू उधर हवाओं में घुलती चली गई
आई बहार अब के चमन में कुछ इस तरह
गुल की हर एक शाख़ लचकती चली गई
'तौक़ीर' कर चुका था समुंदर से दोस्ती
कश्ती भँवर से उस की गुज़रती चली गई
ग़ज़ल
रुख़ से नक़ाब उन के जो हटती चली गई
तौक़ीर अहमद