रुख़-ओ-ज़ुल्फ़ का हूँ फ़साना-ख़्वाँ यही मश्ग़ला यही काम है
मुझे दिन का चैन अज़ाब-ए-जाँ मुझे शब की नींद हराम है
तिरे इंतिज़ार में है ताब ये मरीज़-ए-हिज्र है जाँ-ब-लब
कहीं आ भी वा'दा-ख़िलाफ़ अब कि यहाँ तो काम तमाम है
कहूँ हसरतों का हुजूम क्या दर-ए-दिल तक आ के वो बेवफ़ा
मुझे ये सुना के पलट गया कि यहाँ तो मजमा-ए-आम है
न वो मेहर-ओ-माह की ताबिशें न वो अख़्तरों की नुमाइशें
न वो आसमाँ की हैं गर्दिशें न वो सुब्ह है न वो शाम है
मिरे दम पे इश्क़ में है बनी तुझे वा'ज़-ओ-पंद की है पड़ी
मिरे नासेहा तुझे बंदगी तिरी दोस्ती को सलाम है
न सताएँ वो न सताएँ वो इधर आएँ वो इधर आएँ वो
न सही मुझी को बलाएँ वो ये ख़याल-ए-बातिल-ओ-ख़ाम है
तप-ए-ग़म से होती है अब मफ़र कि तबीब-ए-मर्ग है चारा-गर
मिरा क़िस्सा आज है मुख़्तसर मिरी दास्तान तमाम है
है कहाँ वो साक़ी-ए-तुंद-ख़ू कि है मय-कदे में ये हा-ओ-हू
कहीं सर-निगूँ हैं ख़ुम-ओ-सुबू कहीं शीशा है कहीं जाम है
नहीं दिल को फ़िक्र ये बे-सबब गया दिन कहाँ हुई रात कब
मुझे रोज़-ए-वस्ल है अजब अभी सुब्ह थी अभी शाम है
न वो मेहमान-ए-हरीम-ए-दिल न ख़याल इस का मुक़ीम-ए-दिल
हुई क़त्अ रस्म-ए-क़दीम-ए-दिल न पयाम है न सलाम है
कहीं हुस्न वालों के दरमियाँ ये ग़ज़ल सुनी तो कहा कि हाँ
ये है नज़्म-ए-'साक़िब'-ख़ुश-ए-बयाँ ये उसी का तर्ज़-ए-कलाम है

ग़ज़ल
रुख़-ओ-ज़ुल्फ़ का हूँ फ़साना-ख़्वाँ यही मश्ग़ला यही काम है
साक़िब लखनवी